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कोई दीवार न दर जानते हैं - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

कोई दीवार न दर जानते हैं

कोई दीवार न दर जानते हैं

हम इसी दश्त को घर जानते हैं

जान कर चुप हैं वगरना हम भी

बात करने का हुनर जानते हैं

ये मुहिम हदिया-ए-सर माँगती है

इस में है जाँ का ख़तर जानते हैं

लद गई शाख़-ए-लहू फूलों से

आएँगे अब के समर जानते हैं

जान जानी है तो जाएगी ज़रूर

हम दुआओं का असर जानते हैं

कौन है ताबा-ए-मोहमल किस का

किस का है किस पे असर जानते हैं

लोग उसे मस्लहतन कुछ न कहें

उस की औक़ात मगर जानते हैं

रात किस किस के उड़े हैं पुर्ज़े

शहर में क्या है ख़बर जानते हैं

रात काटे नहीं कटती है मगर

रात है ता-ब-सहर जानते हैं

हम ने भी देखी है दुनिया 'मोहसिन'

है किधर किस की नज़र जानते हैं

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