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किसी के दोश न मरकब से इस्तिफ़ादा किया - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

किसी के दोश न मरकब से इस्तिफ़ादा किया

किसी के दोश न मरकब से इस्तिफ़ादा किया

यहाँ तलक का सफ़र हम ने पा-प्यादा किया

जहाँ पे देखे क़दम अपने कुछ भटकते हुए

वहीं ठहर के फ़रोज़ाँ चराग़-ए-बादा किया

लिबास बदले नहीं हम ने मौसमों की तरह

कि ज़ेब-ए-तन जो किया एक ही लबादा किया

अमीर-ए-शहर सभी थे शरीक-ए-मश्क़-ए-सितम

किसी ने कम तो किसी ने सितम ज़ियादा किया

हर एक बार क़दम बुत-कदे में लौट आए

ख़ुदा गवाह है मस्जिद का जब इरादा किया

बिछड़ने वालों में हम जिस से आश्ना कम थे

न जाने दिल ने उसे याद क्यूँ ज़ियादा किया

कोई अकेला तो मैं सादगी-पसंद न था

पसंद उस ने भी रंगों में रंग सादा किया

बहुत ही तंग थी 'मोहसिन' ये रहगुज़ार-ए-ग़ज़ल

हम अहल-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र ने इसे कुशादा किया

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