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जितना तहज़ीब-ए-बदन से मैं सँवरता जाऊँ - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

जितना तहज़ीब-ए-बदन से मैं सँवरता जाऊँ

जितना तहज़ीब-ए-बदन से मैं सँवरता जाऊँ

उतना ही टूट के अंदर से बिखरता जाऊँ

ज़िंदगी जैसे कैलेंडर पे बदलती तारीख़

मैं शब-ओ-रोज़ के मानिंद गुज़रता जाऊँ

क्या पता ख़्वाबों की ताबीर मिले या न मिले

किसी काग़ज़ पे उन्हें नोट ही करता जाऊँ

सेहन-ए-गुलशन से वो इक आख़िरी रिश्ता भी गया

ख़ुश्क पत्तों की तरह अब तो बिखरता जाऊँ

तह-ए-ज़ुल्मात इन आँखों के दिए जलते जाएँ

ज़ीना ज़ीना मैं उजालों में उतरता जाऊँ

गर्द-ए-दामन की तरह मुझ को उड़ाने वाले

अक्स बन कर तिरी आँखों में ठहरता जाऊँ

कितने घबराए हुए हैं मिरे क़ातिल 'मोहसिन'

आस्तीनों पे लहू बन के उभरता जाऊँ

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