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जाना है उसी सम्त कि चारा नहीं कोई - मोहसिन ज़ैदी कविता - Darsaal

जाना है उसी सम्त कि चारा नहीं कोई

जाना है उसी सम्त कि चारा नहीं कोई

जिस सम्त को रस्ता भी निकलता नहीं कोई

बस दिल का है सौदा कोई बाज़ी नहीं सर की

थोड़ा सा है नुक़सान ज़ियादा नहीं कोई

मंजधार में कश्ती का बदलना नहीं मंज़ूर

ऐसी मुझे साहिल की तमन्ना नहीं कोई

हर शख़्स यहाँ गुम्बद-ए-बे-दर की तरह है

आवाज़ पे आवाज़ दो सुनता नहीं कोई

हम सीना-सिपर आ गए मैदान-ए-विग़ा में

अब क्यूँ सफ़-ए-आदा से निकलता नहीं कोई

माना कि बुरा है जो कम-आमेज़ हूँ इतना

ये तेरा तग़ाफ़ुल भी तो अच्छा नहीं कोई

वो शोबदा-गर ही न रहा खेल हुआ ख़त्म

होने को बस अब और तमाशा नहीं कोई

इक नक़्द-ए-हुनर है कि नहीं जिस की कोई क़द्र

पास इस के सिवा और असासा नहीं कोई

पामाली-ए-गुलशन की ये तस्वीर है 'मोहसिन'

शादाबी-ए-गुलशन का ये नक़्शा नहीं कोई

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