यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं 'मोहसिन'
वो काँच का पैकर है तो पत्थर तिरी आँखें
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मिरा होना न होना
ये दिल ये पागल दिल मिरा क्यूँ बुझ गया आवारगी
सारे लहजे तिरे बे-ज़माँ एक मैं
किस ने संग-ए-ख़ामुशी फेंका भरे-बाज़ार पर
हम अपनी धरती से अपनी हर सम्त ख़ुद तलाशें
वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही
बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना
बहुत दिनों बा'द
कल थके-हारे परिंदों ने नसीहत की मुझे
ब-नाम-ए-ताक़त कोई इशारा नहीं चलेगा
अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता
मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी