सिर्फ़ हाथों को न देखो कभी आँखें भी पढ़ो
कुछ सवाली बड़े ख़ुद्दार हुआ करते हैं
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वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही
बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना
मैं ने अक्सर ख़्वाब में देखा
उस सम्त न जाना जान मिरी
मेरे कमरे में उतर आई ख़मोशी फिर से
चलो छोड़ो
बहुत दिनों बा'द
अगरचे मैं इक चटान सा आदमी रहा हूँ
नया है शहर नए आसरे तलाश करूँ
ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा
लबों पे हर्फ़-ए-रजज़ है ज़िरह उतार के भी
जिन अश्कों की फीकी लौ को हम बेकार समझते थे