जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
अपना क्या है सारे शहर का इक जैसा नुक़सान हुआ
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अब के बारिश में तो ये कार-ए-ज़ियाँ होना ही था
अगरचे मैं इक चटान सा आदमी रहा हूँ
दश्त-ए-हस्ती में शब-ए-ग़म की सहर करने को
मैं चुप रहा कि ज़हर यही मुझ को रास था
तुम्हें जब रू-ब-रू देखा करेंगे
बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना
तिरे बदन से जो छू कर इधर भी आता है
जुगनू गुहर चराग़ उजाले तो दे गया
आज तन्हाई ने थोड़ा सा दिलासा जो दिया
हम अपनी धरती से अपनी हर सम्त ख़ुद तलाशें