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मिरा होना न होना - मोहसिन नक़वी कविता - Darsaal

मिरा होना न होना

मिरा होना न होना मुनहसिर है

एक नुक़्ते पर

वो इक नुक़्ता

जो दो हर्फ़ों को आपस में मिला कर

लफ़्ज़ की तश्कील करता है

वो इक नुक़्ता सिमट जाए तो

होने का हर इक इम्काँ

न होने तक का सारा फ़ासला

पल-भर में तय कर ले

वही नुक़्ता बिखर जाए

तो हर इक शय

न होने के क़फ़स की तीलियों को तोड़ कर रख दे

वो एक नुक़्ता मिरी आँखों में अक्सर

रौशनी के साथ रंगों को उगाता है

मिरे इदराक में शबनम की सूरत

या सितारे की तरह लौह-ए-यक़ीं पर जगमगाता है

वही नुक़्ता मुझे तश्कीक के जंगल में

जुगनू बन के मंज़िल की तरफ़ रस्ता दिखाता है

मुझे अक्सर बताता है

मिरा होना न होने का अमल से

मिरे होने की भी तकमील होती है

वो इक नुक़्ता कहाँ है

कौन है

किस के लबों में छुप के हर इसबात को

इंकार में तब्दील करता है

जो दो हर्फ़ों को आपस में मिला कर लफ़्ज़ की तश्कील करता है

ये नुक्ता भी इसी नुक़्ते में मुज़्मर है

वो एक नुक़्ता कि अब तक जिस के होने का अमीं हूँ मैं

वो इफ़शा हो तो मैं समझूँ

कि हूँ भी या नहीं हूँ मैं

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