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दिसम्बर मुझे रास आता नहीं - मोहसिन नक़वी कविता - Darsaal

दिसम्बर मुझे रास आता नहीं

कई साल गुज़रे

कई साल बीते

शब-ओ-रोज़ की गर्दिशों का तसलसुल

दिल-ओ-जान में साँसों की परतें उल्टे हुए

ज़लज़लों की तरह हाँफता है

चटख़्ते हुए ख़्वाब

आँखों की नाज़ुक रगें छीलते हैं

मगर मैं इक साल की गोद में जागती सुब्ह को

बे-कराँ चाहतों से अटी ज़िंदगी की दुआ दे कर

अब तक वही जुस्तुजू का सफ़र कर रहा हूँ

गुज़रता हुआ साल जैसा भी गुज़रा

मगर साल के आख़िरी दिन

निहायत कठिन हैं

मिरे मिलने वालो

नए साल की मुस्कुराती हुई सुब्ह गर हाथ आए

तो मिलना

कि जाते हुए साल की साअ'तों में

ये बुझता हुआ दिल

धड़कता तो है मुस्कुराता नहीं

दिसम्बर मुझे रास आता नहीं

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