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ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ - मोहसिन नक़वी कविता - Darsaal

ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ

ज़बाँ रखता हूँ लेकिन चुप खड़ा हूँ

मैं आवाज़ों के बन मैं घिर गया हूँ

मिरे घर का दरीचा पूछता है

मैं सारा दिन कहाँ फिरता रहा हूँ

मुझे मेरे सिवा सब लोग समझें

मैं अपने आप से कम बोलता हूँ

सितारों से हसद की इंतिहा है

मैं क़ब्रों पर चराग़ाँ कर रहा हूँ

सँभल कर अब हवाओं से उलझना

मैं तुझ से पेश-तर बुझने लगा हूँ

मिरी क़ुर्बत से क्यूँ ख़ाइफ़ है दुनिया

समुंदर हूँ मैं ख़ुद में गूँजता हूँ

मुझे कब तक समेटेगा वो 'मोहसिन'

मैं अंदर से बहुत टूटा हुआ हूँ

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