वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले
वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले
वो भी चढ़ते हुए सूरज के पुजारी निकले
सब के होंटों पे मिरे बा'द हैं बातें मेरी
मेरे दुश्मन मिरे लफ़्ज़ों के भिकारी निकले
इक जनाज़ा उठा मक़्तल में अजब शान के साथ
जैसे सज कर किसी फ़ातेह की सवारी निकले
हम को हर दौर की गर्दिश ने सलामी दी है
हम वो पत्थर हैं जो हर दौर में भारी निकले
अक्स कोई हो ख़द-ओ-ख़ाल तुम्हारे देखूँ
बज़्म कोई हो मगर बात तुम्हारी निकले
अपने दुश्मन से मैं बे-वज्ह ख़फ़ा था 'मोहसिन'
मेरे क़ातिल तो मिरे अपने हवारी निकले
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