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वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले - मोहसिन नक़वी कविता - Darsaal

वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले

वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले

वो भी चढ़ते हुए सूरज के पुजारी निकले

सब के होंटों पे मिरे बा'द हैं बातें मेरी

मेरे दुश्मन मिरे लफ़्ज़ों के भिकारी निकले

इक जनाज़ा उठा मक़्तल में अजब शान के साथ

जैसे सज कर किसी फ़ातेह की सवारी निकले

हम को हर दौर की गर्दिश ने सलामी दी है

हम वो पत्थर हैं जो हर दौर में भारी निकले

अक्स कोई हो ख़द-ओ-ख़ाल तुम्हारे देखूँ

बज़्म कोई हो मगर बात तुम्हारी निकले

अपने दुश्मन से मैं बे-वज्ह ख़फ़ा था 'मोहसिन'

मेरे क़ातिल तो मिरे अपने हवारी निकले

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