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मैं दिल पे जब्र करूँगा तुझे भुला दूँगा - मोहसिन नक़वी कविता - Darsaal

मैं दिल पे जब्र करूँगा तुझे भुला दूँगा

मैं दिल पे जब्र करूँगा तुझे भुला दूँगा

मरूँगा ख़ुद भी तुझे भी कड़ी सज़ा दूँगा

ये तीरगी मिरे घर का ही क्यूँ मुक़द्दर हो

मैं तेरे शहर के सारे दिए बुझा दूँगा

हवा का हाथ बटाऊँगा हर तबाही में

हरे शजर से परिंदे मैं ख़ुद उड़ा दूँगा

वफ़ा करूँगा किसी सोगवार चेहरे से

पुरानी क़ब्र पे कतबा नया सजा दूँगा

इसी ख़याल में गुज़री है शाम-ए-दर्द अक्सर

कि दर्द हद से बढ़ेगा तो मुस्कुरा दूँगा

तू आसमान की सूरत है गर पड़ेगा कभी

ज़मीं हूँ मैं भी मगर तुझ को आसरा दूँगा

बढ़ा रही हैं मिरे दुख निशानियाँ तेरी

मैं तेरे ख़त तिरी तस्वीर तक जला दूँगा

बहुत दिनों से मिरा दिल उदास है 'मोहसिन'

इस आइने को कोई अक्स अब नया दूँगा

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