मैं चुप रहा कि ज़हर यही मुझ को रास था
मैं चुप रहा कि ज़हर यही मुझ को रास था
वो संग-ए-लफ़्ज़ फेंक के कितना उदास था
अक्सर मिरी क़बा पे हँसी आ गई जिसे
कल मिल गया तो वो भी दरीदा-लिबास था
मैं ढूँढता था दूर ख़लाओं में एक जिस्म
चेहरों का इक हुजूम मिरे आस-पास था
तुम ख़ुश थे पत्थरों को ख़ुदा जान के मगर
मुझ को यक़ीन है वो तुम्हारा क़यास था
बख़्शा है जिस ने रूह को ज़ख़्मों का पैरहन
'मोहसिन' वो शख़्स कितना तबीअत-शनास था
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