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ग़ज़लों की धनक ओढ़ मिरे शोला-बदन तू - मोहसिन नक़वी कविता - Darsaal

ग़ज़लों की धनक ओढ़ मिरे शोला-बदन तू

ग़ज़लों की धनक ओढ़ मिरे शोला-बदन तू

है मेरा सुख़न तू मिरा मौज़ू-ए-सुख़न तू

कलियों की तरह फूट सर-ए-शाख़-ए-तमन्ना

ख़ुशबू की तरह फैल चमन-ता-ब-चमन तू

नाज़िल हो कभी ज़ेहन पे आयात की सूरत

आयात में ढल जा कभी जिब्रील दहन तू

अब क्यूँ न सजाऊँ मैं तुझे दीदा ओ दिल में

लगता है अँधेरे में सवेरे की किरन तू

पहले न कोई रम्ज़-ए-सुख़न थी न किनाया

अब नुक़्ता-ए-तकमील-ए-हुनर मेहवर-ए-फ़न तू

ये कम तो नहीं तू मिरा मेयार-ए-नज़र है

ऐ दोस्त मिरे वास्ते कुछ और न बन तू

मुमकिन हो तो रहने दे मुझे ज़ुल्मत-ए-जाँ में

ढूँडेगा कहाँ चाँदनी रातों का कफ़न तू

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