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बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना - मोहसिन नक़वी कविता - Darsaal

बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना

बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना

हवा से डरना बुझे चराग़ों से प्यार करना

खुली ज़मीनों में जब भी सरसों के फूल महकें

तुम ऐसी रुत में सदा मिरा इंतिज़ार करना

जो लोग चाहें तो फिर तुम्हें याद भी न आएँ

कभी कभी तुम मुझे भी उन में शुमार करना

किसी को इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई कभी न देना

मिरी तरह अपने आप को सोगवार करना

तमाम वा'दे कहाँ तलक याद रख सकोगे

जो भूल जाएँ वो अहद भी उस्तुवार करना

ये किस की आँखों ने बादलों को सिखा दिया है

कि सीना-ए-संग से रवाँ आबशार करना

मैं ज़िंदगी से न खुल सका इस लिए भी 'मोहसिन'

कि बहते पानी पे कब तलक ए'तिबार करना

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