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क़ुर्ब - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

क़ुर्ब

तमाम शब मिरे कमरे कि ज़र्द खिड़की पर

कभी हवाओं के झोंकों ने आ के दस्तक दी

कभी धड़कती हुई तीरगी ने सर पटख़ा

कभी सिमटती बिखरती सी सर्द बूँदों ने

ख़मोश शीशे कि दीवार से गले मिल कर

वो एक बात ब-अंदाज़-ए-महरमाना कही

जो मैं ने शब की महकती हुई ख़मोशी में

रफ़ीक़-ए-राह-ए-मोहब्बत से वालेहाना कही

वो रात जिस में सर-ए-दश्त आसमाँ बादल

खनकते मोतियों की दिल-नवाज़ रिमझिम में

ज़मीं की तिश्ना दहानी के राज़ खोल गया

शफ़क़ के रंग मुरादों की शब में घोल गया

फिर आज रात फ़लक पर तना है ख़ेमा-ए-अब्र

बरसती बूँदों से रौशन हैं ज़ेहन में शमएँ

छतों पे नाचती फिरती हैं बे-ज़बाँ परियाँ

लहू में रक़्स-कुनाँ है तमाज़त-ए-ख़ुर्शीद

ख़ुमार-ए-क़ुर्ब-ए-दिलआरा की हो गई ताईद

लरज़ती बूँदों के ये जाँ-गुदाज़ शीश-महल

खुले हुए हैं किसी दर्द-आश्ना के लिए

तरस रहे हैं किसी जश्न-ए-बे-सदा के लिए

दयार-ए-शब में बड़ी देर से उदास हूँ मैं

नज़र उठा के मुझे देख तेरे पास हूँ मैं

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