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ज़लज़लों ने किया यूँ शहर को मिस्मार कि बस - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

ज़लज़लों ने किया यूँ शहर को मिस्मार कि बस

ज़लज़लों ने किया यूँ शहर को मिस्मार कि बस

चीख़ उठे ख़ौफ़ से बाम-ओ-दर-ओ-दीवार कि बस

बारिशें ले गई हैं सारा असासा मेरा

मेहरबाँ इतना हुआ अब्र-ए-गुहर-बार कि बस

अब किसी दिल में नहीं मिम्बर-ओ-मेहराब का ख़ब्त

ऐसे बदनाम हुए जुब्बा-ओ-दस्तार कि बस

इतनी मय भी न मिली होंट ज़रा तर करते

अपनी तक़दीर पे वो रोए हैं मय-ख़्वार कि बस

शहर-ए-तख़रीब में क्या ख़्वाहिश ता'मीर करें

ऐसे ताराज हुए कूचा-ओ-बाज़ार कि बस

अब के ख़ुर्शीद ने बरसाई है वो तारीकी

सर-बरहना निकल आई है शब-ए-तार कि बस

ज़ुल्म वो ज़ुल्म अजल ढूँढती फिरती है पनह

सब्र वो सब्र कि शर्मिंदा है आज़ार कि बस

यार-ओ-अग़्यार ने देखा है तअ'ज्जुब से बहुत

'मोहसिन'-एहसाँ पे थी वो तीरों की बौछार कि बस

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