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तीरगी है सहन में ताबिंदगी दीवार पर - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

तीरगी है सहन में ताबिंदगी दीवार पर

तीरगी है सहन में ताबिंदगी दीवार पर

आइने जड़ती रही है ज़िंदगी दीवार पर

सब जलाल-ए-मंसबी सैल-ए-फ़ना ले जाएगा

लाख हम लिखते रहें पाइंदगी दीवार पर

ज़ुल्मतें उमडीं कुछ ऐसे खा गईं हर्फ़ों का नूर

ख़ून-ए-दिल से की थी कुछ रख़शंदगी दीवार पर

बाम-ओ-दर को देखती रहती हैं मेरी हसरतें

कौन चस्पाँ कर गया शर्मिंदगी दीवार पर

दो घड़ी साए में वो ठहरा था लेकिन आज तक

है अजब इक आलम-ए-रक़संदगी दीवार पर

उम्र भर हम ने किए हैं जम्अ' मुर्दा-तजरिबे

और समझते हैं कि लिख दी ज़िंदगी दीवार पर

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