शाख़-ए-मिज़्गान-ए-मोहब्बत पे सजा ले मुझ को
शाख़-ए-मिज़्गान-ए-मोहब्बत पे सजा ले मुझ को
बर्ग-ए-आवारा हूँ सरसर से बचा ले मुझ को
रात-भर चाँद की ठंडक में सुलगता है बदन
कोई तन्हाई के दोज़ख़ से निकाले मुझ को
दूर रह के भी है हर साँस में ख़ुश्बू तेरी
मैं महक जाऊँ जो तू पास बुला ले मुझ को
मैं तिरी आँख से ढलका हुआ इक आँसू हूँ
तू अगर चाहे बिखरने से बचा ले मुझ को
शब ग़नीमत थी कि ये ज़ख़्म-ए-नज़ारा तो न था
डस गए सुब्ह-ए-तमन्ना के उजाले मुझ को
मैं मुनक़्क़श हूँ तिरी रूह की दीवारों पर
तू मिटा सकता नहीं भूलने वाले मुझ को
सुब्ह से शाम हुई रूठा हुआ बैठा हूँ
कोई ऐसा नहीं आ कर जो मना ले मुझ को
तह-ब-तह मौज-ए-तलब खींच रही है 'मोहसिन'
कोई गिर्दाब-ए-तमन्ना से निकाले मुझ को
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