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सरिश्क-ए-ख़ूँ सर-ए-मिज़्गाँ कभी पिरोए न थे - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

सरिश्क-ए-ख़ूँ सर-ए-मिज़्गाँ कभी पिरोए न थे

सरिश्क-ए-ख़ूँ सर-ए-मिज़्गाँ कभी पिरोए न थे

हम इतना हँसने के बा'द इस तरह से रोए न थे

सितम ये है कि वो ख़ुर्शीद काटने आए

तमाम उम्र सितारे जिन्हों ने बोए न थे

अब आप अपनी तमन्नाओं से हूँ शर्मिंदा

ये दाग़ वो हैं जो मैं ने लहू से धोए न थे

बहे वो अश्क कि ग़र्क़ाब हो गईं आँखें

सफ़ीने इस तरह हम ने कभी डुबोए न थे

चराग़ लाओ कोई आफ़्ताब ही ढूँडें

हम इस क़दर कभी तारीकियों में खोए न थे

इक आह-ए-सर्द के बा'द आँखें मूँद लीं 'मोहसिन'

ये क्या हुआ कभी ठंडी हवा में सोए न थे

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