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साए की उम्मीद थी तारीकियाँ फैला गया - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

साए की उम्मीद थी तारीकियाँ फैला गया

साए की उम्मीद थी तारीकियाँ फैला गया

जो शजर फूटा ज़मीं से बीज ही को खा गया

क्या गिला तुझ से कि गुलशन का मुक़द्दर है यही

अब्र घिर कर जब भी आया आग ही बरसा गया

अब किनारों से न माँगे क़तरे क़तरे का हिसाब

क्यूँ समुंदर की तरफ़ बहता हुआ दरिया गया

मेरी सैराबी भी मेरी तिश्नगी से कम न थी

मैं मिसाल-ए-अब्र आया सूरत-ए-सहरा गया

हुस्न के हमराह चलता था जुलूस-ए-तिश्नगाँ

इश्क़ तन्हा दहर में आया था और तन्हा गया

'मोहसिन'-एहसाँ किसी बादल का टुकड़ा है कि जो

एक लम्हे के लिए आया घिरा बरसा गया

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