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सबा में था न दिल-आवेज़ी-ए-बहार में था - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

सबा में था न दिल-आवेज़ी-ए-बहार में था

सबा में था न दिल-आवेज़ी-ए-बहार में था

वो इक इशारा कि इस चश्म-ए-वज़्अ-दार में था

गुज़र कुछ और भी आहिस्ता ऐ निगार-ए-विसाल

कि एक उम्र से मैं तेरे इंतिज़ार में था

हवा-ए-दहर की ज़द में भी आ के बुझ न सकी

बला का हौसला इक शम्-ए-रहगुज़ार में था

हम अपनी धन में चले आए जानिब-ए-मंज़िल

पलट के देखा तो इक कारवाँ ग़ुबार में था

मिला तो फूल खिल उठ्ठे थे शाख़-ए-मिज़्गाँ पर

जुदा हुआ तो लहू चश्म-ए-अश्क-बार में था

तुझे पुकार के चुप हो गए हैं दीवाने

बस एक नारा-ए-मस्ताना इख़्तियार में था

अब इक किरन भी नहीं नीम-वा दरीचे में

ख़ुशा वो दिन कि कोई मेरे इंतिज़ार में था

हवा-ए-कम-निगही ने बुझा दिया वर्ना

में वो चराग़ कि रौशन हरीम-ए-यार में था

तिरी निगाह से ओझल सही मगर 'मोहसिन'

ख़िज़ाँ का अक्स भी आईना-ए-बहार में था

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