रौशनियाँ बदन बदन तेरे मिरे लहू से हैं
रौशनियाँ बदन बदन तेरे मिरे लहू से हैं
लम्स की सारी लज़्ज़तें जिस्म की हाव-हू से हैं
क़ुर्बत-ए-रोज़-रोज़ में रंजिशें इतनी बढ़ गईं
वो भी गुरेज़-पा से हैं हम भी बहाना-जू से हैं
डर है कि शाम-ए-हिज्र में दिल का दिया बुझा न दें
अब के हवा की साज़िशें शोला-ए-आरज़ू से हैं
जितने ख़िज़ाँ के ढंग हैं जितने फ़ज़ा में रंग हैं
मेरे ही ख़ार-ओ-ख़स से हैं मेरे ही रंग-ओ-बू से हैं
मेरी मता-ए-ज़िंदगी ख़्वाहिश-ए-ज़ख़्म ही तो है
मेरे जुनूँ के सिलसिले लज़्ज़त-ए-जुस्तुजू से हैं
ख़ुश हैं कि लौट आए हैं सारे मुसाफ़िरान-ए-ग़म
गरचे ये सुर्ख़-रू नहीं फिर भी ये सुर्ख़-रू से हैं
जिस के कमाल-ए-तंज़ से शहर सरापा ज़ख़्म है
उस को सभी शिकायतें मोहसिन-ए-क़ंद-ख़ू से हैं
(661) Peoples Rate This