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रौशनियाँ बदन बदन तेरे मिरे लहू से हैं - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

रौशनियाँ बदन बदन तेरे मिरे लहू से हैं

रौशनियाँ बदन बदन तेरे मिरे लहू से हैं

लम्स की सारी लज़्ज़तें जिस्म की हाव-हू से हैं

क़ुर्बत-ए-रोज़-रोज़ में रंजिशें इतनी बढ़ गईं

वो भी गुरेज़-पा से हैं हम भी बहाना-जू से हैं

डर है कि शाम-ए-हिज्र में दिल का दिया बुझा न दें

अब के हवा की साज़िशें शोला-ए-आरज़ू से हैं

जितने ख़िज़ाँ के ढंग हैं जितने फ़ज़ा में रंग हैं

मेरे ही ख़ार-ओ-ख़स से हैं मेरे ही रंग-ओ-बू से हैं

मेरी मता-ए-ज़िंदगी ख़्वाहिश-ए-ज़ख़्म ही तो है

मेरे जुनूँ के सिलसिले लज़्ज़त-ए-जुस्तुजू से हैं

ख़ुश हैं कि लौट आए हैं सारे मुसाफ़िरान-ए-ग़म

गरचे ये सुर्ख़-रू नहीं फिर भी ये सुर्ख़-रू से हैं

जिस के कमाल-ए-तंज़ से शहर सरापा ज़ख़्म है

उस को सभी शिकायतें मोहसिन-ए-क़ंद-ख़ू से हैं

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