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निगार-ए-फ़न पे हरीफ़ान-ए-शे'र की यलग़ार - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

निगार-ए-फ़न पे हरीफ़ान-ए-शे'र की यलग़ार

निगार-ए-फ़न पे हरीफ़ान-ए-शे'र की यलग़ार

नियाम-ए-हर्फ़ कहाँ है ख़याल की तलवार

रहीन-ए-मर्ग-ए-तमन्ना थी कामरानी-ए-वस्ल

झुलस गया है मुझे क़ुर्बा-ए-शो'ला-ए-रुख़सार

हवा कुछ ऐसी चली दश्त-ए-ना-मुरादी से

उजड़ के बस न सके फिर कभी दिलों के दयार

कड़कती धूप में अब और किस जगह बैठूँ

सिमट के बन गया दीवार साया-ए-दीवार

जला गई है मिरी आग पैरहन मेरा

मैं क्या गिला करूँ तुझ से चराग़-ए-महफ़िल-ए-यार

ज़रा रसाई-ए-मंज़िल-गह-ए-मुराद तो देख

चले थे शहर-ए-वफ़ा से पहुँच गए सर-ए-दार

ये किस ने सर्द गुलिस्ताँ का ज़िक्र छेड़ा है

निखर चला है निगाहों में पैकर-ए-क़द-ए-यार

ये किस जज़ीरा-ए-बेरंग-ओ-बू में बस्ते हैं

न ताइरान-ए-अजम हैं न आहूवान-ए-ततार

ये कौन गुज़रा है 'मोहसिन' ख़राबा-ए-दिल से

कि उड़ रहा है हर इक सम्त हसरतों का ग़ुबार

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