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मिरे वजूद के दोज़ख़ को सर्द कर देगा - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

मिरे वजूद के दोज़ख़ को सर्द कर देगा

मिरे वजूद के दोज़ख़ को सर्द कर देगा

अगर वो अब्र-ए-करम है तो खुल के बरसेगा

गिला न कर कि है आग़ाज़-ए-शब अभी प्यारे

ढलेगी रात तो ये दर्द और चमकेगा

क़दह की ख़ैर सुनाओ कि अब के बारिश-ए-संग

अगर हुई तो तरब-ज़ार-ए-शब भी डूबेगा

ये शहर-ए-कम-नज़राँ है इधर न कर आँखें

यहाँ इशारा-ए-मिज़्गाँ कोई न समझेगा

मैं उस बदन में उतर जाऊँगा नशे की तरह

वो एक बार अगर फिर पलट के देखेगा

रवाँ तो हूँ सू-ए-अफ़्लाक-ए-आरज़ू लेकिन

ये ज़ोर-ए-मौज-ए-हवा बाज़ुओं को तोड़ेगा

अगर है शौक़-ए-असीरी तो मूँद ले आँखें

तू उम्र भर दर-ओ-दीवार भी न देखेगा

तलाश-ए-क़ाफ़िला-ए-ज़िंदगी है अब बे-सूद

ये रह-गुज़ार-ए-नफ़स पर कहीं न ठहरेगा

न आँख में कोई जुम्बिश न पाँव पर कोई गर्द

जहाँ से इतना भी मोहतात कौन गुज़रेगा

रहेगी दिल में न जब कोई भी ख़लिश 'मोहसिन'

भुला चुका है जिसे तू उसे पुकारेगा

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