मिरे वजूद के दोज़ख़ को सर्द कर देगा
मिरे वजूद के दोज़ख़ को सर्द कर देगा
अगर वो अब्र-ए-करम है तो खुल के बरसेगा
गिला न कर कि है आग़ाज़-ए-शब अभी प्यारे
ढलेगी रात तो ये दर्द और चमकेगा
क़दह की ख़ैर सुनाओ कि अब के बारिश-ए-संग
अगर हुई तो तरब-ज़ार-ए-शब भी डूबेगा
ये शहर-ए-कम-नज़राँ है इधर न कर आँखें
यहाँ इशारा-ए-मिज़्गाँ कोई न समझेगा
मैं उस बदन में उतर जाऊँगा नशे की तरह
वो एक बार अगर फिर पलट के देखेगा
रवाँ तो हूँ सू-ए-अफ़्लाक-ए-आरज़ू लेकिन
ये ज़ोर-ए-मौज-ए-हवा बाज़ुओं को तोड़ेगा
अगर है शौक़-ए-असीरी तो मूँद ले आँखें
तू उम्र भर दर-ओ-दीवार भी न देखेगा
तलाश-ए-क़ाफ़िला-ए-ज़िंदगी है अब बे-सूद
ये रह-गुज़ार-ए-नफ़स पर कहीं न ठहरेगा
न आँख में कोई जुम्बिश न पाँव पर कोई गर्द
जहाँ से इतना भी मोहतात कौन गुज़रेगा
रहेगी दिल में न जब कोई भी ख़लिश 'मोहसिन'
भुला चुका है जिसे तू उसे पुकारेगा
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