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मैं एक उम्र के बा'द आज ख़ुद को समझा हूँ - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

मैं एक उम्र के बा'द आज ख़ुद को समझा हूँ

मैं एक उम्र के बा'द आज ख़ुद को समझा हूँ

अगर रुकूँ तो किनारा चलूँ तो दरिया हूँ

जो लब-कुशा हूँ तो हंगामा-ए-बहार हूँ मैं

अगर ख़मोश रहूँ तो सुकूत-ए-सहरा हूँ

तुझे ख़बर भी है कुछ ऐ मसर्रतों के नक़ीब

मैं कब से साया-ए-दीवार-ए-ग़म में बैठा हूँ

झुलस गई है हवा-ए-दयार-ए-दर्द मुझे

बस एक पल के लिए शहर-ए-ग़म में ठहरा हूँ

मिरी ख़ुदी में निहाँ है मिरे ख़ुदा का वजूद

ख़ुदा को भूल गया जब से ख़ुद को समझा हूँ

मैं अपने पाँव का काँटा मैं अपने ग़म का असीर

मिसाल-ए-संग-ए-गराँ रास्ते में बैठा हूँ

बुलंदियों से मिरी सम्त देखने वाले

मिरे क़रीब तो आ मैं भी एक दुनिया हूँ

अगर है मक़्तल जानाँ का रुख़ तो ऐ 'मोहसिन'

ज़रा ठहर कि तिरे साथ मैं भी चलता हूँ

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