लिबास तन पे सलामत हैं हाथ ख़ाली हैं

लिबास तन पे सलामत हैं हाथ ख़ाली हैं

हम एक मुल्क-ए-ख़ुदा-दाद के सवाली हैं

न हम में अक़्ल-ओ-फ़रासत न हिकमत-ओ-तदबीर

मगर है ज़ो'म कि जमइय्यत-ए-मिसाली हैं

मुनाफ़िक़त ने लहू तन में इतना गर्माया

कि गुफ़्तुगू में रिया-कारियाँ सजा ली हैं

ख़ुद अपने आप से कद इस क़दर हमें है कि अब

रिवायतें ही गुलिस्ताँ की फूँक डाली हैं

हमारे दिल हैं अब आमाज-गाह-ए-हिर्स-ओ-हवस

कि हम ने सीनों में तारीकियाँ उगा ली हैं

नशेमनों को उजाड़ा कुछ इस तरह जैसे

कि फ़ाख़ताएँ दरख़्तों से उड़ने वाली हैं

किसी ग़रीब अपाहिज फ़क़ीर की 'मोहसिन'

किसी अमीर ने बैसाखियाँ चुरा ली हैं

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