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किसी के सामने इज़हार-ए-दर्द-ए-जाँ न करूँ - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

किसी के सामने इज़हार-ए-दर्द-ए-जाँ न करूँ

किसी के सामने इज़हार-ए-दर्द-ए-जाँ न करूँ

उधर उधर की कहूँ ज़ख़्म-ए-दिल अयाँ न करूँ

लगा के आग बदन में वो मुझ से चाहता है

कि साँस लूँ तो फ़ज़ा को धुआँ धुआँ न करूँ

मैं उस को पढ़ता हूँ इंजील-ए-आरज़ू की तरह

समझ में आए तो मा'नी हर इक बयाँ न करूँ

ग़ज़ब है मुझ से तवक़्क़ो' ज़माना रखता है

कि पा-शिकस्तगी में रंज-ए-रफ़्तगाँ न करूँ

ये हुक्म मुझ को मिला क़स्र-ए-ख़ुसरवी से कि मैं

फ़ुग़ाँ सुनूँ मगर अंदाज़ा-ए-फ़ुगाँ न करूँ

मज़े से सोऊँ अगर हाथ आए शाम-ए-फ़िराक़

मैं एक लम्हा भी इस शब का राएगाँ न करूँ

उठा के सर पे फिरूँ बार-ए-आरज़ू 'मोहसिन'

कमर को ख़म मैं कभी सूरत-ए-कमाँ न करूँ

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