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ख़ुद अपनी ज़ात की तश्हीर कू-ब-कू किए जाएँ - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

ख़ुद अपनी ज़ात की तश्हीर कू-ब-कू किए जाएँ

ख़ुद अपनी ज़ात की तश्हीर कू-ब-कू किए जाएँ

ख़ुदा मिले न मिले उस की जुस्तुजू किए जाएँ

अजीब जारी हुआ अब के हुक्म-ए-हाकिम-ए-शहर

असीर सारे तरफ़-दार-ए-रंग-ओ-बू किए जाएँ

हमें पसंद नहीं ज़र्फ़-ए-मय में क़तरा-ए-मय

हमारे सामने ख़ाली ख़ुम-ओ-सुबू किए जाएँ

जहाँ भी आएँ नज़र चाक चाक दामन-ए-दिल

वो तार पैरहन-ए-इश्क़ से रफ़ू किए जाएँ

कुछ अब के ऐसे पड़ा साया-ए-तुनुक-ज़र्फ़ी

समुंदरों को भी हम लोग आबजू किए जाएँ

ख़िज़ाँ ने जिन के मुक़द्दर में ज़र्दियाँ लिख दीं

हम उन गुलाब-रुतों को भी सुर्ख़-रू किए जाएँ

जनाब-ए-'मोहसिन'-ए-एहसाँ से इल्तिजा है कि वो

पहुँच गए हैं सर-ए-आब तो वुज़ू किए जाएँ

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