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ख़ुद अपने आप से ये गिला उम्र भर किया - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

ख़ुद अपने आप से ये गिला उम्र भर किया

ख़ुद अपने आप से ये गिला उम्र भर किया

कैसे तिरे फ़िराक़ का मौसम बसर किया

मिन्क़ार से हवा ने लिखी दास्तान-ए-हिज्र

यूँ हर्फ़-ए-मो'तबर को भी ना-मो'तबर किया

कैसी हवा चली कि मअन बारिशों के बा'द

हर बे-गुलाब रुत ने गुलिस्ताँ में घर किया

ख़ुद हम ने काट काट दी ज़ंजीर साँस की

ख़ुद हम ने ज़िंदगी का सफ़र मुख़्तसर किया

बे-आब आइनों को भी इक आब बख़्श दी

हर चंद बे-हुनर थे ये कार-ए-हुनर किया

सारे सुतून रेत की बुनियाद पर उठाए

हम ने किस एहतियात से ता'मीर घर किया

दुनिया सिमट के एक ही नुक्ते में आ गई

हम ने जब अपनी ज़ात के अंदर सफ़र किया

था मीर जी को इज़्ज़त-ए-सादात का ख़याल

हम ने सुख़न को जिंस-ए-दूकान-ए-हुनर किया

मौक़ा-शनास क़स्र-ए-हवस में पहुँच गए

तय मरहला उड़ान का बे-बाल-ओ-पर किया

ख़ुशबू मिरे बदन से ख़ुद आ कर लिपट गई

'मोहसिन' ये किस दयार से मैं ने गुज़र किया

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