इस कड़ी धूप के सन्नाटे में हैरान हुआ
इस कड़ी धूप के सन्नाटे में हैरान हुआ
घर से जो भी निकल आया वो पशेमान हुआ
हसरतें ख़ाक उड़ाती हैं हर इक क़र्ये में
दिल कि इक शहर-ए-निगाराँ था बयाबान हुआ
मुद्दतें गुज़रीं तो इक क़तरा गुहर बन पाया
सदियाँ बीतीं तो कहीं आदमी इंसान हुआ
सर-ए-साहिल थे तो ये सैल-ए-बला कुछ भी न था
ज़द में जब आए तो अंदाज़ा-ए-तूफ़ान हुआ
हम सर-ए-तूर भी पहुँचे मगर ऐ हुस्न-ए-अज़ल
तेरे मिलने का न फिर भी कोई इम्कान हुआ
सर झुकाए हुए क्यूँ बैठे हैं अरबाब-ए-वफ़ा
मरहला कौन सा मुश्किल था जो आसान हुआ
न दर-ओ-बाम पे रौनक़ न झरोकों में बहार
दिल-ए-वीराँ की तरह शहर भी सुनसान हुआ
तू भी इस ग़म-कदा-दहर में आ कर 'मोहसिन'
बू-ए-गुल की तरह आवारा-ए-हैरान हुआ
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