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इस कड़ी धूप के सन्नाटे में हैरान हुआ - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

इस कड़ी धूप के सन्नाटे में हैरान हुआ

इस कड़ी धूप के सन्नाटे में हैरान हुआ

घर से जो भी निकल आया वो पशेमान हुआ

हसरतें ख़ाक उड़ाती हैं हर इक क़र्ये में

दिल कि इक शहर-ए-निगाराँ था बयाबान हुआ

मुद्दतें गुज़रीं तो इक क़तरा गुहर बन पाया

सदियाँ बीतीं तो कहीं आदमी इंसान हुआ

सर-ए-साहिल थे तो ये सैल-ए-बला कुछ भी न था

ज़द में जब आए तो अंदाज़ा-ए-तूफ़ान हुआ

हम सर-ए-तूर भी पहुँचे मगर ऐ हुस्न-ए-अज़ल

तेरे मिलने का न फिर भी कोई इम्कान हुआ

सर झुकाए हुए क्यूँ बैठे हैं अरबाब-ए-वफ़ा

मरहला कौन सा मुश्किल था जो आसान हुआ

न दर-ओ-बाम पे रौनक़ न झरोकों में बहार

दिल-ए-वीराँ की तरह शहर भी सुनसान हुआ

तू भी इस ग़म-कदा-दहर में आ कर 'मोहसिन'

बू-ए-गुल की तरह आवारा-ए-हैरान हुआ

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