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हम भी ज़िंदा हैं अजब काविश-ए-इज़हार के साथ - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

हम भी ज़िंदा हैं अजब काविश-ए-इज़हार के साथ

हम भी ज़िंदा हैं अजब काविश-ए-इज़हार के साथ

गुफ़्तुगू करते हैं घर के दर-ओ-दीवार के साथ

हम ने ऐसे भी फ़क़ीहान-ए-हरम देखे हैं

बेच देते हैं फ़ज़ीलत भी जो दस्तार के साथ

हैरती हूँ वो मुसलमाँ को मुसलमाँ करने

सर-ए-बाज़ार निकल आते हैं दो-चार के साथ

क्या ज़रूरत है उन्हें मंज़र-ओ-पस-मंज़र की

जो कहानी ही बदल देते हैं किरदार के साथ

ऐसे ख़ुर्शीद की भी हम ने पज़ीराई की

जो दम-ए-सुब्ह निकलता है शब-ए-तार के साथ

चीज़ दुक्काँ से उठा कर वहीं रख देता हूँ

रोज़ ये होता है मुझ ऐसे ख़रीदार के साथ

'मोहसिन'-एहसान मशक़्क़त की भी हद होती है

तुम तो मर जाओगे बार-ए-ग़म-ए-दिल-दार के साथ

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