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हवा-ओ-हिर्स की दुनिया में दर-ब-दर हुए हम - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

हवा-ओ-हिर्स की दुनिया में दर-ब-दर हुए हम

हवा-ओ-हिर्स की दुनिया में दर-ब-दर हुए हम

ख़बर जहाँ की रखी ख़ुद से बे-ख़बर हुए हम

क़फ़स में थे तो पर-ओ-बाल थे शरीक-ए-मलाल

चमन में आए तो महरूम-ए-बाल-ओ-पर हुए हम

कनारा-गीर तमाशाइयों से कैसा गिला

हर एक मौजा-ए-तूफ़ाँ के हम-सफ़र हुए हम

हमारे हौसले की दाद तो अदू ने भी दी

चले हैं नावक-ए-दुश्नाम तो सिपर हुए हम

वो जिस सफ़र में मुराद-ए-सफ़र यक़ीनी थी

उसी सफ़र पे न आमादा-ए-सफ़र हुए हम

हमारी मंजिलत-ओ-क़द्र अपने फ़न से है

हुनर-शनास हुए हम तो मो'तबर हुए हम

हमारे पास है 'मोहसिन' मता-ए-हैरानी

वो इंतिज़ार रहा है कि चश्म-ए-दर हुए हम

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