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गुम इस क़दर हुए आईना-ए-जमाल में हम - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

गुम इस क़दर हुए आईना-ए-जमाल में हम

गुम इस क़दर हुए आईना-ए-जमाल में हम

उसी को ढूँडते हैं उस के ख़द्द-ओ-ख़ाल में हम

जवाज़-ए-सुस्त-ख़िरामी तलाश करते हैं

किस एहतिमाम से रफ़्तार-ए-माह-ओ-साल में हम

ज़माने हम तिरी हर कज-रवी को जानते हैं

इसी लिए कभी आए न तेरी चाल में हम

जहाँ पे तुझ से बिछड़ना बहुत ज़रूरी था

उसी जगह पे खड़े हैं तिरे ख़याल में हम

तअ'य्युन-ए-सफ़र-ओ-सम्त से हैं बेगाना

चले जुनूब को थे आ गए शुमाल में हम

शिकस्ता आइना हैं हम को रेज़ा रेज़ा उठा

कि चूर चूर हुए दिल की देख-भाल में हम

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