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असीर-ए-हल्का-ए-ज़ंजीर-ए-जाँ हुआ है ये दिल - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

असीर-ए-हल्का-ए-ज़ंजीर-ए-जाँ हुआ है ये दिल

असीर-ए-हल्का-ए-ज़ंजीर-ए-जाँ हुआ है ये दिल

किसी पे रोना कहाँ मेहरबाँ हुआ है ये दिल

इक इज़्तिराब-ए-मुसलसल में कट रही है हयात

शिकार-ए-साज़िश-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ हुआ है ये दिल

जबीं ब-ख़ाक नहुम चश्म बर-सितारा-ए-सुब्ह

कभी ज़मीन कभी आसमाँ हुआ है ये दिल

बहुत दिनों से थी मद्धम चराग़-ए-दर्द की लौ

ख़ुद अपनी आँच से शो'ला-ब-जाँ हुआ है ये दिल

ख़ुमार-ए-हिज्र था ऐसा उखड़ गईं साँसें

गिरफ़्त-ए-दर्द थी ऐसी फ़ुग़ाँ हुआ है ये दिल

जहाँ ने देखा नहीं ऐसा गिर्या-ओ-मातम

जब अपनी मौत पे नौहा-कुनाँ हुआ है ये दिल

हमारा क्या है कि बस हम हैं एक मुश्त-ए-ग़ुबार

खुली फ़ज़ा जो मिली पुर-फ़िशाँ हुआ है ये दिल

अजब क़याम-ओ-सफ़र का है मरहला 'मोहसिन'

ठहर गई है नज़र तो रवाँ हुआ है ये दिल

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