अपने अंदर से जो बाहर निकले
अपने अंदर से जो बाहर निकले
ख़ुद-नुमाई का समुंदर निकले
अब सज़ाएँ ही मुक़द्दर ठहरीं
ताज़ियानों के सना-गर निकले
ऐसे भी लोग हैं इस शहर में जो
धूप में बर्फ़ पहन कर निकले
फ़ाख़्ताओं का तमस्ख़ुर तौबा
चियूँटियों के भी अजब पर निकले
हाथ जब क़ब्ज़ा-ए-शमशीर पे हो
क्यूँ न मक़्तल में दिलावर निकले
खींच दो दार पे दिल-दारों को
शहरयारों का ज़रा डर निकले
जिस भी दीवार में दर करता हूँ
वही दीवार पस-ए-दर निकले
कश्तियाँ छोड़ के दरियाओं में
रेगज़ारों से शनावर निकले
आँधियों में भी खड़े हैं अब तक
हम दरख़्तों से क़द-आवर निकले
भीक उस शहर में हम क्या माँगें
जिस के हातिम भी गदागर निकले
पाँव में बाँध के घुंघरू 'मोहसिन'!
चंद क़ब्रों के मुजाविर निकले
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