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अपने अंदर से जो बाहर निकले - मोहसिन एहसान कविता - Darsaal

अपने अंदर से जो बाहर निकले

अपने अंदर से जो बाहर निकले

ख़ुद-नुमाई का समुंदर निकले

अब सज़ाएँ ही मुक़द्दर ठहरीं

ताज़ियानों के सना-गर निकले

ऐसे भी लोग हैं इस शहर में जो

धूप में बर्फ़ पहन कर निकले

फ़ाख़्ताओं का तमस्ख़ुर तौबा

चियूँटियों के भी अजब पर निकले

हाथ जब क़ब्ज़ा-ए-शमशीर पे हो

क्यूँ न मक़्तल में दिलावर निकले

खींच दो दार पे दिल-दारों को

शहरयारों का ज़रा डर निकले

जिस भी दीवार में दर करता हूँ

वही दीवार पस-ए-दर निकले

कश्तियाँ छोड़ के दरियाओं में

रेगज़ारों से शनावर निकले

आँधियों में भी खड़े हैं अब तक

हम दरख़्तों से क़द-आवर निकले

भीक उस शहर में हम क्या माँगें

जिस के हातिम भी गदागर निकले

पाँव में बाँध के घुंघरू 'मोहसिन'!

चंद क़ब्रों के मुजाविर निकले

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