आँख तिश्ना भी नहीं होंट सवाली भी नहीं
आँख तिश्ना भी नहीं होंट सवाली भी नहीं
ये सुराही कि भरी भी नहीं ख़ाली भी नहीं
हम सख़ी दिरहम-ओ-दीनार लिए फिरते हैं
शहर-ए-नादार में अब कोई सवाली भी नहीं
क्यूँ गिराने के लिए दरपय आज़ार हैं लोग
हम ने बुनियाद मकाँ की अभी डाली भी नहीं
ऐसी मकरूह कहानी की ये तस्वीर है जो
सुनने वाली भी नहीं देखने वाली भी नहीं
'मोहसिन'-एहसाँ का है अंदाज़-ए-जुनूँ सब से अलग
ये जलाली भी नहीं है ये जमाली भी नहीं
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