बात कहने की हमेशा भूले
लाख अंगुश्त पे धागा बाँधा
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सदा-ए-वक़्त की गर बाज़-गश्त सन पाओ
ता-देर हम ब-दीदा-ए-तर देखते रहे
नज़र मिला के ज़रा देख मत झुका आँखें
इस लिए सुनता हूँ 'मोहसिन' हर फ़साना ग़ौर से
वक़्त के तक़ाज़ों को इस तरह भी समझा कर
जो मिले थे हमें किताबों में
लफ़्ज़ों को ए'तिमाद का लहजा भी चाहिए
निगार-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ से लौ लगाए हुए
लफ़्ज़ों के एहतियात ने मअ'नी बदल दिए
क्या ज़रूरी है अब ये बताना मिरा
क्या ख़बर थी हमें ये ज़ख़्म भी खाना होगा
बदन को रौंदने वालो ज़मीर ज़िंदा है