अच्छा तो ये तीसरी फोटो वाली
सौ में आप को जचती है
आठ बजे... कल रात... यहीं ले आऊँगी
मैं शर्मिंदा हूँ
वो कलमोही लम्बी कार में
कोह-ए-मरी को चली गई
बाबू जी गर बुरा न मानें तो
इक बात कहूँ
मैं हाज़िर हूँ
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उस से मिल कर उसी को पूछते हैं
रात भर जीने से क्या शम-ए-शबिस्ताँ की तरह
अज़्मत-ए-फ़न के परस्तार हैं हम
कोई सूरत नहीं ख़राबी की
हक़ाएक़ को भुलाना चाहते हैं
मैं लफ़्ज़ों के असर का मो'जिज़ा हूँ
नज़र मिला के ज़रा देख मत झुका आँखें
सूरज चढ़ा तो फिर भी वही लोग ज़द में थे
चाहत में क्या दुनिया-दारी इश्क़ में कैसी मजबूरी
नेमुल-बदल
इबलाग़ के लिए न तुम अख़बार देखना
निगार-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ से लौ लगाए हुए