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ज़ख़्म-ख़ुर्दा तो उसी का था सिपर क्या लेता - मोहसिन भोपाली कविता - Darsaal

ज़ख़्म-ख़ुर्दा तो उसी का था सिपर क्या लेता

ज़ख़्म-ख़ुर्दा तो उसी का था सिपर क्या लेता

अपनी तख़्लीक़ से मैं दाद-ए-हुनर क्या लेता

वो किसी और तसलसुल में रहा महव-ए-कलाम

मेरी बातों का भला दिल पे असर क्या लेता

उस को फ़ुर्सत ही न थी नाज़-ए-मसीहाई से

अपने बीमार की वो ख़ैर-ख़बर क्या लेता

एक आवाज़ पे मक़्सूम था चलते रहना

बे-तअय्युन था सफ़र रख़्त-ए-सफ़र क्या लेता

साज़-ए-लब गुंग थे बे-नूर थी क़िंदील-ए-नज़र

ऐसे माहौल में इल्ज़ाम-ए-हुनर क्या लेता

बे-नियाज़ाना रहा अपनी रविश पर 'मोहसिन'

शब-परस्तों से भला फ़ाल-ए-सहर क्या लेता

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