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ये तय हुआ है कि क़ातिल को भी दुआ दीजे - मोहसिन भोपाली कविता - Darsaal

ये तय हुआ है कि क़ातिल को भी दुआ दीजे

ये तय हुआ है कि क़ातिल को भी दुआ दीजे

ख़ुद अपना ख़ून बहा फिर भी ख़ूँ-बहा दीजे

नियाज़-ओ-नाज़ बजा हैं मगर ये शर्त-ए-विसाल

है संग-ए-राह-ए-तअ'ल्लुक़ इसे हटा दीजे

सुना था हम ने कि मंज़िल क़रीब आ पहुँची

कहाँ हैं आप अगर हो सके सदा दीजे

सहर क़रीब सही फिर भी कुछ बईद नहीं

चराग़ बुझने लगे हैं तो लौ बढ़ा दीजे

महकते ज़ख़्मों को इनआ'म-ए-फ़स्ल-ए-गुल कहिए

सुलग उठे जो चमन बर्क़ को दुआ दीजे

कुछ इस तरह है कि गुज़रे हैं जिस क़यामत से

समझिए ख़्वाब उसे ख़्वाब को भुला दीजे

बदल गए हैं तक़ाज़े सुख़न-शनासी के

उधर अता हो इधर दाद बरमला दीजे

ये क्या ज़रूर कि एहसास को ज़बाँ मिल जाए

है हुक्म-ए-नग़्मा-सराई तो गुनगुना दीजे

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