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सहमे सहमे चलते फिरते लाशे जैसे लोग - मोहसिन भोपाली कविता - Darsaal

सहमे सहमे चलते फिरते लाशे जैसे लोग

सहमे सहमे चलते फिरते लाशे जैसे लोग

वक़्त से पहले मर जाते हैं कितने ऐसे लोग

सर पर चढ़ कर बोल रहे हैं पौदे जैसे लोग

पेड़ बने ख़ामोश खड़े हैं कैसे कैसे लोग

चढ़ता सूरज देख के ख़ुश हैं कौन नहीं समझाए

तपती धूप में कुम्हलाएँगे ग़ुंचे जैसे लोग

शब के राज-दुलारो सोचो अपना भी अंजाम

शब का क्या है काट ही देंगे जैसे-तैसे लोग

ग़म का दरमाँ सोचने बैठे थे जो रात गए

फ़िक्र-ए-फ़र्दा ले कर उठ्ठे बज़्म-ए-मय से लोग

'मोहसिन' और भी निखरेगा इन शे'रों का मफ़्हूम

अपने आप को पहचानेंगे जैसे जैसे लोग

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