रात भर जीने से क्या शम-ए-शबिस्ताँ की तरह
रात भर जीने से क्या शम-ए-शबिस्ताँ की तरह
एक लम्हा है बहुत शो'ला-ए-रक़्साँ की तरह
दिल के ज़ख़्मों पे भी फूलों का गुमाँ होता है
याद आई है तिरी मौज-ए-बहाराँ की तरह
क्यूँ हो ख़ामोश रफ़ीक़ान-ए-चमन कुछ तो कहो
सुब्ह-ए-गुलशन भी न गुज़रे शब-ए-ज़िंदाँ की तरह
लज़्ज़त-ए-दर्द को अरबाब-ए-हवस क्या जानें
लज़्ज़त-ए-दर्द कि अर्ज़ां नहीं दरमाँ की तरह
यूरिश-ए-दर्द ने पिंदार-ए-वफ़ा तोड़ दिया
हम भी नादिम हैं बहुत हुस्न-ए-पशेमाँ की तरह
याद रखेगा सुलगता हुआ माहौल हमें
ख़ारज़ारों में रहे हम गुल-ए-ख़ंदाँ की तरह
तब-ए-ख़ुद्दार पे इक तुर्फ़ा सितम है 'मोहसिन'
उन का अंदाज़-ए-करम ग़ैर के एहसाँ की तरह
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