एहतिमाम-ए-रसन-ओ-दार से किया होता है
एहतिमाम-ए-रसन-ओ-दार से किया होता है
जिस क़दर ज़ुल्म बढ़े अज़्म सिवा होता है
सौत ओ आहंग ही पैराया-ए-इज़हार नहीं
बे-नवाई में भी अंदाज़-ए-नवा होता है
ग़म-ज़दो दायरा-ए-ग़म से निकल कर देखो
दर्द से दर्द का एहसास बड़ा होता है
इतने बदले गए आदाब कि अब महफ़िल में
दिल की धड़कन पे भी एहसास-ए-सज़ा होता है
रविश-ए-वक़्त से मायूस न हों अहल-ए-नज़र
सानेहा क़िस्मत-ए-अरबाब-ए-वफ़ा होता है
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