बे-ख़बर सा था मगर सब की ख़बर रखता था
बे-ख़बर सा था मगर सब की ख़बर रखता था
चाहे जाने के सभी ऐब-ओ-हुनर रखता था
ला-तअल्लुक़ नज़र आता था ब-ज़ाहिर लेकिन
बे-नियाज़ाना हर इक दिल में गुज़र रखता था
उस की नफ़रत का भी मेयार जुदा था सब से
वो अलग अपना इक अंदाज़-ए-नज़र रखता था
बे-यक़ीनी की फ़ज़ाओं में भी था हौसला-मंद
शब-परस्तों से भी उम्मीद-ए-सहर रखता था
मशवरे करते हैं जो घर को सजाने के लिए
उन से किस तरह कहूँ मैं भी तो घर रखता था
उस के हर वार को सहता रहा हँस कर 'मोहसिन'
ये तअस्सुर न दिया मैं भी सिपर रखता था
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