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बना-ए-इश्क़ है बस उस्तुवार करने तक - मोहसिन भोपाली कविता - Darsaal

बना-ए-इश्क़ है बस उस्तुवार करने तक

बिना-ए-इश्क़ है बस उस्तुवार करने तक

फ़लक को चैन कहाँ फिर ग़ुबार करने तक

ये कब कहा कि भरोसा नहीं है वादे पर

मैं जी सकूँगा तिरा इंतिज़ार करने तक

ख़बर न थी वो मुझे क़त्ल करने आया है

मैं उस को दोस्त समझता था वार करने तक

फिर इस के बाद कहाँ इम्तियाज़-ए-दामन-ओ-दिल

जुनूँ है शौक़ फ़क़त इख़्तियार करने तक

वो ख़ू-ए-इश्क़ बसी है हमारी फ़ितरत में

कि साथ देते हैं हम जाँ निसार करने तक

कुछ इस से पहले ही आ जाए मेरी ज़ीस्त की शाम

हयात वक़्फ़ हो जब दिन शुमार करने तक

मेरे क़बीले का 'मोहसिन' ये क़ौल-ए-फ़ैसल है

कि ज़ुल्म ज़ुल्म है सब्र इख़्तियार करने तक

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