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सर उठाया इश्क़ ने तो चोट इक भारी पड़ी - मोहसिन असरार कविता - Darsaal

सर उठाया इश्क़ ने तो चोट इक भारी पड़ी

सर उठाया इश्क़ ने तो चोट इक भारी पड़ी

जा के इस के पावँ 'मोहसिन' अपनी ख़ुद्दारी पड़ी

अब जो देखा दोनों ही ना-क़ाबिल-ए-तफ़्सीर थे

रात के जागे हुओं पर रौशनी भारी पड़ी

चाहने वालों को ही होना पड़ा है संगसार

ज़िंदा रहने वालों पर ही ज़िंदगी भारी पड़ी

मेरे दुख को एक ही पहलू की लज़्ज़त थी अज़ीज़

अब जो करवट ली तो मुझ पे आ के बेदारी पड़ी

वो समुंदर वो हवाएँ वो तज़ब्ज़ुब और वो आँख

जान से जाने गए थे और गले यारी पड़ी

आश्ना होने से पहले अजनबी-पन खा गया

घर से पहले रास्ते में घर की रहदारी पड़ी

इन दिनों शायद मैं अपनी दस्तरस से दूर हूँ

आज तो उस की नज़र दिल पर मिरे कारी पड़ी

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