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कार-ए-आसान को दुश्वार बना जाता है - मोहसिन असरार कविता - Darsaal

कार-ए-आसान को दुश्वार बना जाता है

कार-ए-आसान को दुश्वार बना जाता है

वाहिमा कोई भी हो काम दिखा जाता है

खुलने लगते हैं निगाहों पे जब असरार-ओ-रुमूज़

दिल मुझे ले के कहीं और चला जाता है

घर में रहना मिरा गोया उसे मंज़ूर नहीं

जब भी आता है नया काम बता जाता है

सादा रखने से सदा देता है क़िर्तास मुझे

लफ़्ज़ लिख दूँ तो मिरी साख गिरा जाता है

इश्क़ ने ऐसा बनाया है जहाँ-दार मुझे

हर ख़सारा मिरी सोचों में समा जाता है

आओ हम पहले तअ'ल्लुक़ को समझ लें 'मोहसिन'

रंजिशें हों तो मरासिम का मज़ा जाता है

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