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जान जाए अगर तो जाने दे - मोहसिन असरार कविता - Darsaal

जान जाए अगर तो जाने दे

जान जाए अगर तो जाने दे

अपनी तस्वीर तो बनाने दे

आख़िर ऐसी भी क्या है हद-बंदी

हाथ को हाथ तक तो आने दे

एक ही आग का बुझाना क्या

दूसरी आग भी लगाने दे

क्या ज़रूरी है ख़ुद को खोया जाए

पा रहा हूँ तुझे सो पाने दे

दस्तकें क्यूँ हवा पे देता है

दर-ओ-दीवार तो बनाने दे

मैं नया पैरहन बदल दूँगा

दाग़ आता है अब तो आने दे

ज़िंदगी तो हमें पसंद आई

अब हमें अपने घर भी जाने दे

तेरी ज़ुल्फ़ों में तीरगी है बहुत

ला मुझे रौशनी बनाने दे

रास्ता गर नहीं तो फिर 'मोहसिन'

मुझ को बे-रास्ता ही जाने दे

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