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गुज़र चुका है ज़माना विसाल करने का - मोहसिन असरार कविता - Darsaal

गुज़र चुका है ज़माना विसाल करने का

गुज़र चुका है ज़माना विसाल करने का

ये कोई वक़्त है तेरे कमाल करने का

बुरा न मान जो पहलू बदल रहा हूँ मैं

मिरा तरीक़ा है ये अर्ज़-ए-हाल करने का

मुझे उदास न कर वर्ना साख टूटेगी

नहीं है तजरबा मुझ को मलाल करने का

तलाश कर मिरे अंदर वजूद को अपने

इरादा छोड़ मुझे पाएमाल करने का

ये हम जो इश्क़ में बीमार पड़ते रहते हैं

ये इक सबब है तअ'ल्लुक़ बहाल करने का

अजीब शख़्स था लौटा गया मिरा सब कुछ

मुआवज़ा न लिया देख-भाल करने का

फिर इस के बा'द हमेशा ही चुप रहे 'मोहसिन'

ख़िराज देना पड़ा अर्ज़-ए-हाल करने का

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